गौरजा बनसल, शोधार्थी..... देल्ही बंगलोरे मुंबई, देश के हमारे महानगर कहलाते है, कुछ दिन हम भी गुज़रे यहा, ऐसे सपने अक्सर हुमको आते है. सपने को अपने साकार करने, हम भी निकल पड़े देल्ही शहेर की और, इमारतें बड़ी-२ देखकर, आँखें हुमारी हो गयी भाव विभोर. कुछ दिन बड़े चाव से हुमने, बहुत से माल में भ्रमण किया, देल्ही मेट्रो रेल में बेड कर, हम ने भी देल्ही दर्शन किया. विभिं प्रांतों के लोग यहा, १ ही मोहल्ले में रहते है, दिलवालों की है ये देल्ही, गर्व से हुमेशा ये कहते है. थोड़े ही दिन में , असलियत बड़े शहरों की मेरे सामने आई, बस चार दिन की थी ये चाँदनी, बात ये मेरी भी समझ में आई. असली रूप महानगरों का, अधिकतम जनता के लिए कुछ और हैं, पीली चीज़ दूर से जो दिखाई दे, ज़रूरी तो नही हुमेसा वो गोल्ड है. मेट्रो शहेर की भीड़ में, इंसान है खोता जा रहा, भागमभाग है इतनी यहाँ, जीना जीवन १ कला है, इस बात को ही है, भूलता जा रहा| हर सुबह मेट्रो की पीली लाइन से आना, १ प्रॉजेक्ट सा लगता है, जाम में घंटों फास्कार ऑफीस आना, अब रोज़ का काम लगता है. घर आजकल मुझको आपना सराय जैसा लगता है, आधा वक़्त तो अक्सर मेरा, सड़को पर ही गुज़रता है. सुहाने बारिश के मौसम में, लोग यहा दर जाते है, चाई पकोडे खाने की जगह, जाम में फिर से फसेंगे, इस बात को सोचकर घबराते है. सितारे यहा के आसमान में, प्रदूषण से चुप जाते है, फ्रेश हवा में ऑक्सिजन पाने, लोग ऋषिकेश के चाकर लगाते हैं. मा बाप यहाँ बच्चों से ढंग से, वीकेंड पर ही मिल पाते है. नाश्ता डाइनिंग टेबल पर नही, वो कारो में करते नज़र आते है. स्ट्रेस डिप्रेशन के अधिकतम किससे, महानगरों से ही आते है, मदिरपान, धूम्रपान, यहाँ, स्ट्रेस बसटर कहलाते है. भरे पूरे परिवार यहा, रोड रेज का शिकार बन जाते है, बलात्कार, शोषण के किससे से, अख़बार के पन्ने रोज़ भरे आते है. मकान के किराए, बिजली पानी के बिल में ही, सारी तनख़्वाह चली जाती है, बचाया हर महीने में कितना, हर महीने ये पहेली , पहेली ही रह जाती है. सड़कों की भीड़ देखकर, अब मुझको दर लगता हैं, फिर से अपने शहेर मे, बिंदास घूमने का मॅन करता है. डरता हूँ इस दो ड्ड भाग मे, कही ना मैं भी गुम हो जाउन, नौकरी का अगर सवाल ना हो तो, आज ही अपने घर को जाउन. काश, बहुराष्ट्रियाँ कपमनियाँ, छोटे शहरों में भी खुल जाए, मेरे जैसे लाखों लोगो के कदम, फिर से अपने नगरों को बढ़ जाएँ... |
Home > Pulsating Thoughts of IGIBians >